शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

गगन गिल हिन्दी कविता की आन्ना अख्मातवा हैं। दर्द और दुःख की, पीड़ा की जो गहन अनुभूति गगन की कविताओं में है और उसकी प्रस्तुति जैसे गगन गिल करती हैं, वैसी प्रस्तुति हिन्दी के कवियों में दुर्लभ है। यह कविता पढ़े :

न मैं हँसी, न मैं रोई

न मैं हँसी, न मैं रोई
बीच चौराहे जा खड़ी होई

न मैं रूठी, न मैं मानी
अपनी चुप से बांधी फाँसी

ये धागा कैसा मैंने काता
न इसने बांधा न इसने उड़ाया

ये सुई कैसी मैंने चुभोई
न इसने सिली न उधेड़ी

ये करवट कैसी मैंने ली
साँस रुकी अब रुकी

ये मैंने कैसी सीवन छेड़ी
आँतें खुल-खुल बाहर आईं

जब न लिखा गया न बूझा
टंगड़ी दे खुद को क्यों दबोचा

ये दुख कैसा मैने पाला
इसमें अंधेरा न उजाला

2 टिप्‍पणियां:

  1. अंतिम शे'र के तो कहने की क्या! पर पूरी रचना भी बहत अलहदा और उम्दा.
    --
    पंख, आबिदा और खुदा

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  2. bhai janvijay ji
    nasmty
    gagan gill ji ke bare mein aapki tippani ekdum sahi hai,
    unki yeh kavita bahut bhavna prad hai, khastore par yeh panktiyan:-

    ये धागा कैसा मैंने काता
    न इसने बांधा न इसने उड़ाया

    gagan gill bahut pahle isii taraf rahti thin
    unhen badhai ho
    congrats
    -om sapra,
    N-22, dr. Mukherji Nagar,
    behind batra cinema,
    delhi-9
    M- 9818180932

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